ख़ुदा-वंदा ये कैसी सुब्ह-ए-ग़म है
उजाले में बरसती है सियाही
सिराज लखनवी
ख़ुदा-वंदा ये कैसी सुब्ह-ए-ग़म है
उजाले में बरसती है सियाही
सिराज लखनवी
ख़ुशा वो दौर कि जब मरकज़-ए-निगाह थे हम
पड़ा जो वक़्त तो अब कोई रू-शनास नहीं
सिराज लखनवी
कुछ और माँगना मेरे मशरब में कुफ़्र है
ला अपना हाथ दे मिरे दस्त-ए-सवाल में
सिराज लखनवी
कुछ और माँगना मेरे मशरब में कुफ़्र है
ला अपना हाथ दे मिरे दस्त-ए-सवाल में
सिराज लखनवी
क्यूँ ध्यान बटाती है मिरा गर्दिश-ए-दुनिया
हट जा कि न फ़र्क़ आए मिरी लग़्ज़िश-ए-पा में
सिराज लखनवी
लहू में डूबी है तारीख़-ए-ख़िल्क़त-ए-इंसाँ
अभी ये नस्ल है शाइस्ता-ए-हयात कहाँ
सिराज लखनवी