क्या पूछते हो तुम कि तिरा दिल किधर गया
दिल का मकाँ कहाँ यही दिल-दार की तरफ़
सिराज औरंगाबादी
क्यूँकि होवे ज़ाहिद ख़ुद-बीं मुरीद-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार
उस ने सारी उम्र में ज़ुन्नार कूँ देखा न था
सिराज औरंगाबादी
मैं हूँ तो दिवाना प किसी ज़ुल्फ़ का नहीं हूँ
वल्लाह कि रखता नहीं यक तार किसी का
सिराज औरंगाबादी
मैं कहा क्या अरक़ है तुझ रुख़ पर
मुस्कुरा कर कहा कि फ़ित्ना है
सिराज औरंगाबादी
मकतब में मिरे जुनूँ के मजनूँ
नादान है तिफ़्ल-ए-अबजदी है
सिराज औरंगाबादी
मकतब में मिरे जुनूँ के मजनूँ
नादान है तिफ़्ल-ए-अबजदी है
सिराज औरंगाबादी
मकतब-ए-इश्क़ का मोअल्लिम हूँ
क्यूँ न होए दर्स-ए-यार की तकरार
सिराज औरंगाबादी