मैं तो मस्जिद से चला था किसी काबा की तरफ़
दुख तो ये है कि इबादत मिरी बद-नाम हुई
अहमद राही
मिरे हबीब मिरी मुस्कुराहटों पे न जा
ख़ुदा-गवाह मुझे आज भी तिरा ग़म है
अहमद राही
क़द ओ गेसू लब-ओ-रुख़्सार के अफ़्साने चले
आज महफ़िल में तिरे नाम पे पैमाने चले
अहमद राही
वक़्त की क़ब्र में उल्फ़त का भरम रखने को
अपनी ही लाश उतारी है तुम्हें क्या मालूम
अहमद राही
वो दास्ताँ जो तिरी दिल-कशी ने छेड़ी थी
हज़ार बार मिरी सादगी ने दोहराई
अहमद राही
ज़िंदगी के वो किसी मोड़ पे गाहे गाहे
मिल तो जाते हैं मुलाक़ात कहाँ होती है
अहमद राही
फ़र्त-ए-ग़म-ए-हवादिस-ए-दौराँ के बावजूद
जब भी तिरे दयार से गुज़रे मचल गए
अहमद रियाज़