सोच अपनी ज़ात तक महदूद है
ज़ेहन की क्या ये तबाही कुछ नहीं
ताहिर अज़ीम
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तासीर नहीं रहती अल्फ़ाज़ की बंदिश में
मैं सच जो नहीं कहता लहजे का असर जाता
ताहिर अज़ीम
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तीरगी की क्या अजब तरकीब है ये
अब हवा के दोश पर दीवा रखा है
ताहिर अज़ीम
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तुम हमारे ख़ून की क़ीमत न पूछो
इस में अपने ज़र्फ़ का अर्सा रखा है
ताहिर अज़ीम
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ये जो माज़ी की बात करते हैं
सोचते होंगे हाल से आगे
ताहिर अज़ीम
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