मैं उस की मोहब्बत से इक दिन भी मुकर जाता
कुछ और नहीं होता इस दिल से उतर जाता
जिस शाम गिरफ़्तारी क़िस्मत में मिरी आई
उस शाम की लज़्ज़त से मैं और बिखर जाता
ख़ुशबू के तआक़ुब ने ज़ंजीर किया मुझ को
वर्ना तो यहाँ से मैं चुप-चाप गुज़र जाता
आवाज़ समाअत तक पहुँची ही नहीं शायद
वो वर्ना तसल्ली को कुछ देर ठहर जाता
ज़ेहनों के मरासिम थे इक साथ भी हो जाते
इक राह अगर कोई दीवार में कर जाता
तासीर नहीं रहती अल्फ़ाज़ की बंदिश में
मैं सच जो नहीं कहता लहजे का असर जाता
अब तेरे बिछड़ने से ये बात खुली मुझ पर
तो जान अगर होता मैं जाँ से गुज़र जाता
दिल हम ने 'अज़ीम' अपना आसेब-ज़दा रक्खा
जो ख़्वाब जन्म लेता वो ख़ौफ़ से मर जाता
ग़ज़ल
मैं उस की मोहब्बत से इक दिन भी मुकर जाता
ताहिर अज़ीम