इतनी सियाह-रात में इतनी सी रौशनी
ये चाँद वो नहीं मिरा महताब और है
सऊद उस्मानी
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हर शय से पलट रही हैं नज़रें
मंज़र कोई जम नहीं रहा है
सऊद उस्मानी
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हर इक उफ़ुक़ पे मुसलसल तुलूअ होता हुआ
मैं आफ़्ताब के मानिंद रहगुज़ार में था
सऊद उस्मानी
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हैरत से तकता है सहरा बारिश के नज़राने को
कितनी दूर से आई है ये रेत से हाथ मिलाने को
सऊद उस्मानी
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बरून-ए-ख़ाक फ़क़त चंद ठेकरे हैं मगर
यहाँ से शहर मिलेंगे अगर खुदाई हुई
सऊद उस्मानी
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बहुत दिनों में मिरे घर की ख़ामोशी टूटी
ख़ुद अपने-आप से इक दिन कलाम मैं ने किया
सऊद उस्मानी
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ऐसा है कि सिक्कों की तरह मुल्क-ए-सुख़न में
जारी कोई इक याद पुरानी करें हम भी
सऊद उस्मानी
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