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हिसाब-ए-तर्क-तअल्लुक़ तमाम मैं ने किया | शाही शायरी
hisab-e-tark-talluq tamam maine kiya

ग़ज़ल

हिसाब-ए-तर्क-तअल्लुक़ तमाम मैं ने किया

सऊद उस्मानी

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हिसाब-ए-तर्क-तअल्लुक़ तमाम मैं ने किया
शुरूअ उस ने किया इख़्तिताम मैं ने किया

मुझे भी तर्क-ए-मोहब्बत पे हैरतें हैं रहीं
जो काम मेरा नहीं था वो काम मैं ने किया

वो चाहता था कि देखे मुझे बिखरते हुए
सो उस का जश्न ब-सद-एहतिमाम मैं ने किया

बहुत दिनों मिरे चेहरे पे किर्चियाँ सी रहीं
शिकस्त-ए-ज़ात को आईना-फ़ाम मैं ने किया

बहुत दिनों में मिरे घर की ख़ामोशी टूटी
ख़ुद अपने-आप से इक दिन कलाम मैं ने किया

ख़ुदा-ए-ज़ब्त ने मौसम पे क़ुदरतें बख़्शीं
ग़ुबार-ए-तुंद को आहिस्ता-गाम मैं ने किया

इस एक हिज्र ने मिलवा दिया विसाल से भी
कि तू गया तो मोहब्बत को आम मैं ने किया

मिज़ाज-ए-ग़म ने बहर-तौर मश्ग़ले ढूँडे
कि दिल दुखा तो कोई काम-वाम मैं ने किया

चली जो सैल-ए-रवाँ पर वो काग़ज़ी कश्ती
तो इस सफ़र को मोहब्बत के नाम मैं ने किया

वो आफ़्ताब जो दिल में दहक रहा था 'सऊद'
उसे सुपुर्द-ए-शफ़क़ आज शाम मैं ने किया