अजब ख़जालत-ए-जाँ है नज़र तक आई हुई
कि जैसे ज़ख़्म की तक़रीब-ए-रू-नुमाई हुई
नज़र तो अपने मनाज़िर के रम्ज़ जानती है
कि आँख कह नहीं सकती सुनी-सुनाई हुई
बरून-ए-ख़ाक फ़क़त चंद ठेकरे हैं मगर
यहाँ से शहर मिलेंगे अगर खुदाई हुई
ख़बर नहीं है कि तू भी वहाँ मिले न मिले
अगर कभी मिरे दिल तक मिरी रसाई हुई
मैं आँधियों के मुक़ाबिल खड़ा हुआ हूँ 'सऊद'
पड़ी है फ़स्ल-ए-मोहब्बत कटी-कटाई हुई
ग़ज़ल
अजब ख़जालत-ए-जाँ है नज़र तक आई हुई
सऊद उस्मानी