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कैफ़ भोपाली शायरी | शाही शायरी

कैफ़ भोपाली शेर

35 शेर

आग का क्या है पल दो पल में लगती है
बुझते बुझते एक ज़माना लगता है

कैफ़ भोपाली




इक नया ज़ख़्म मिला एक नई उम्र मिली
जब किसी शहर में कुछ यार पुराने से मिले

कैफ़ भोपाली




इस गुलिस्ताँ की यही रीत है ऐ शाख़-ए-गुल
तू ने जिस फूल को पाला वो पराया होगा

कैफ़ भोपाली




जनाब-ए-'कैफ़' ये दिल्ली है 'मीर' ओ 'ग़ालिब' की
यहाँ किसी की तरफ़-दारियाँ नहीं चलतीं

कैफ़ भोपाली




जिस दिन मिरी जबीं किसी दहलीज़ पर झुके
उस दिन ख़ुदा शिगाफ़ मिरे सर में डाल दे

कैफ़ भोपाली




'कैफ़' पैदा कर समुंदर की तरह
वुसअतें ख़ामोशियाँ गहराइयाँ

कैफ़ भोपाली




'कैफ़' परदेस में मत याद करो अपना मकाँ
अब के बारिश ने उसे तोड़ गिराया होगा

कैफ़ भोपाली




कैसे मानें कि उन्हें भूल गया तू ऐ 'कैफ़'
उन के ख़त आज हमें तेरे सिरहाने से मिले

कैफ़ भोपाली