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हाए लोगों की करम-फ़रमाइयाँ | शाही शायरी
hae logon ki karam-farmaiyan

ग़ज़ल

हाए लोगों की करम-फ़रमाइयाँ

कैफ़ भोपाली

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हाए लोगों की करम-फ़रमाइयाँ
तोहमतें बदनामियाँ रुस्वाइयाँ

ज़िंदगी शायद इसी का नाम है
दूरियाँ मजबूरियाँ तन्हाइयाँ

क्या ज़माने में यूँ ही कटती है रात
करवटें बेताबियाँ अंगड़ाइयाँ

क्या यही होती है शाम-ए-इंतिज़ार
आहटें घबराहटें परछाइयाँ

एक रिंद-ए-मस्त की ठोकर में हैं
शाहियाँ सुल्तानियाँ दाराइयाँ

एक पैकर में सिमट कर रह गईं
ख़ूबियाँ ज़ेबाइयाँ रानाइयाँ

रह गईं इक तिफ़्ल-ए-मकतब के हुज़ूर
हिकमतें आगाहियाँ दानाइयाँ

ज़ख़्म दिल के फिर हरे करने लगीं
बदलियाँ बरखा रुतें पुरवाइयाँ

दीदा-ओ-दानिस्ता उन के सामने
लग़्ज़िशें नाकामियाँ पसपाइयाँ

मेरे दिल की धड़कनों में ढल गईं
चूड़ियाँ मौसीक़ियाँ शहनाइयाँ

उन से मिल कर और भी कुछ बढ़ गईं
उलझनें फ़िक्रें क़यास-आराइयाँ

'कैफ़' पैदा कर समुंदर की तरह
वुसअतें ख़ामोशियाँ गहराइयाँ