उस आइने में देखना हैरत भी आएगी
इक रोज़ मुझ पे उस की तबीअ'त भी आएगी
क़दग़न लगा न अश्कों पे यादों के शहर में
होगा अगर तमाशा तो ख़िल्क़त भी आएगी
मैं आइना बनूँगा तू पत्थर उठाएगा
इक दिन खुली सड़क पे ये नौबत भी आएगी
मौसम अगर है सर्द तो फिर आग ताप ले
चमकेगी आँख ख़ूँ में हरारत भी आएगी
कुछ देर और शाख़ पे रहने दे सब्र कर
पकने दे फल को खाने में लज़्ज़त भी आएगी
आँखें हैं तेरे पास तो फिर सतह-ए-आब पर
गहराई से उभर के इबारत भी आएगी
निकलें चराग़ हाथ में ले कर घरों से लोग
सूरज की रह में मंज़िल-ए-ज़ुल्मत भी आएगी
ये जानता तो काटता 'साजिद' न साए को
तलवार पर लहू की तमाज़त भी आएगी
ग़ज़ल
उस आइने में देखना हैरत भी आएगी
इक़बाल साजिद