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बर्क़ का ठीक अगर निशाना हो | शाही शायरी
barq ka Thik agar nishana ho

ग़ज़ल

बर्क़ का ठीक अगर निशाना हो

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

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बर्क़ का ठीक अगर निशाना हो
बंद काहे को कारख़ाना हो

देखने सुनने का मज़ा जब है
कुछ हक़ीक़त हो कुछ फ़साना हो

मौत हर वक़्त आना चाहती है
कोई हीला कोई बहाना हो

राह से संग-ओ-ख़िश्त हट जाएँ
नेकियों का अगर ज़माना हो

मुझ को ख़्वाब-ओ-ख़याल है मंज़िल
क़ाफ़िला शौक़ से रवाना हो

क्या तअज्जुब कि पीछे पीछे मिरे
आने वाला मिरा ज़माना हो