ये सूरज कब निकलता है उन्हीं से पूछना होगा
सहर होने से पहले ही जो बिस्तर छोड़ देते हैं
भारत भूषण पन्त
हमारे हाल पे अब छोड़ दे हमें दुनिया
ये बार बार हमें क्यूँ बताना पड़ता है
भारत भूषण पन्त
अब तो इतनी बार हम रस्ते में ठोकर खा चुके
अब तो हम को भी वो पत्थर देख लेना चाहिए
भारत भूषण पन्त
बस ज़रा इक आइने के टूटने की देर थी
और मैं बाहर से अंदर की तरह लगने लगा
भारत भूषण पन्त
दामन के चाक सीने को बैठे हैं जब भी हम
क्यूँ बार बार सूई से धागा निकल गया
भारत भूषण पन्त
एक जैसे लग रहे हैं अब सभी चेहरे मुझे
होश की ये इंतिहा है या बहुत नश्शे में हूँ
भारत भूषण पन्त
घर से निकल कर जाता हूँ मैं रोज़ कहाँ
इक दिन अपना पीछा कर के देखा जाए
भारत भूषण पन्त
हम काफ़िरों ने शौक़ में रोज़ा तो रख लिया
अब हौसला बढ़ाने को इफ़्तार भी तो हो
भारत भूषण पन्त
हम सराबों में हुए दाख़िल तो ये हम पर खुला
तिश्नगी सब में थी लेकिन तिश्नगी में कौन था
भारत भूषण पन्त