अंधेरा मिटता नहीं है मिटाना पड़ता है
बुझे चराग़ को फिर से जलाना पड़ता है
ये और बात है घबरा रहा है दिल वर्ना
ग़मों का बोझ तो सब को उठाना पड़ता है
कभी कभी तो इन अश्कों की आबरू के लिए
न चाहते हुए भी मुस्कुराना पड़ता है
अब अपनी बात को कहना बहुत ही मुश्किल है
हर एक बात को कितना घुमाना पड़ता है
वगर्ना गुफ़्तुगू करती नहीं ये ख़ामोशी
हर इक सदा को हमें चुप कराना पड़ता है
अब अपने पास तो हम ख़ुद को भी नहीं मिलते
हमें भी ख़ुद से बहुत दूर जाना पड़ता है
इक ऐसा वक़्त भी आता है ज़िंदगी में कभी
जब अपने साए से पीछा छुड़ाना पड़ता है
बस एक झूट कभी आइने से बोला था
अब अपने आप से चेहरा छुपाना पड़ता है
हमारे हाल पे अब छोड़ दे हमें दुनिया
ये बार बार हमें क्यूँ बताना पड़ता है
ग़ज़ल
अंधेरा मिटता नहीं है मिटाना पड़ता है
भारत भूषण पन्त