कहाँ पहुँच के हदें सब तमाम होती हैं
इस आसमान से नीचे उतर के देखा जाए
अतीक़ुल्लाह
इस गली से उस गली तक दौड़ता रहता हूँ मैं
रात उतनी ही मयस्सर है सफ़र उतना ही है
अतीक़ुल्लाह
हर मंज़र के अंदर भी इक मंज़र है
देखने वाला भी तो हो तय्यार मुझे
अतीक़ुल्लाह
हम ज़मीं की तरफ़ जब आए थे
आसमानों में रह गया था कुछ
अतीक़ुल्लाह
फ़ज़ा में हाथ तो उट्ठे थे एक साथ कई
किसी के वास्ते कोई दुआ न करता था
अतीक़ुल्लाह
दिन के हंगामे जिला देते हैं मुझ को वर्ना
सुब्ह से पहले कई मर्तबा मर जाता हूँ
अतीक़ुल्लाह
बड़ी चीज़ है ये सुपुर्दगी का महीन पल
न समझ सको तो मुझे गँवा के भी देखना
अतीक़ुल्लाह
अपने सूखे हुए गुल-दान का ग़म है मुझ को
आँख में अश्क का क़तरा भी नहीं है कोई
अतीक़ुल्लाह
अभी तो काँटों-भरी झाड़ियों में अटका है
कभी दिखाई दिया था हरा-भरा वो भी
अतीक़ुल्लाह