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मैं छुपा रहूँगा निगाह-ओ-ज़ख़्म की ओट में | शाही शायरी
main chhupa rahunga nigah-o-zaKHm ki oT mein

ग़ज़ल

मैं छुपा रहूँगा निगाह-ओ-ज़ख़्म की ओट में

अतीक़ुल्लाह

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मैं छुपा रहूँगा निगाह-ओ-ज़ख़्म की ओट में
किसी और शख़्स से दिल लगा के भी देखना

सर-ए-शाख़-ए-दिल कोई ज़ख़्म है कि गुलाब है
मिरी जाँ की रग के क़रीब आ के भी देखना

कोई तारा चुपके से रखना उस की हथेली पर
वो उदास है तो उसे हँसा के भी देखना

वो जो शाम तेरी पलक पे आ के ठहर गई
मिरी रौशनी की हदों में ला के भी देखना

बड़ी चीज़ है ये सुपुर्दगी का महीन पल
न समझ सको तो मुझे गँवा के भी देखना