दिल के नज़दीक तो साया भी नहीं है कोई
इस ख़राबे में तो आया भी नहीं है कोई
हर सुराग़ अपनी जगह रेत में मादूम हुआ
दूर तक नक़्श-ए-कफ़-ए-पा भी नहीं है कोई
अपने सूखे हुए गुल-दान का ग़म है मुझ को
आँख में अश्क का क़तरा भी नहीं है कोई
दूर से एक हयूला सा नज़र आता है
पास से देखो तो मिलता भी नहीं कोई
कितने दिन होते हैं हाथों में क़लम तक न लिया
काग़ज़ों में नज़र आता भी नहीं है कोई
एक ही सत्र लिखी थी कि ये एहसास हुआ
लफ़्ज़ और मा'नी में रिश्ता भी नहीं है कोई
ग़ज़ल
दिल के नज़दीक तो साया भी नहीं है कोई
अतीक़ुल्लाह