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जब भी तन्हाई के एहसास से घबराता हूँ | शाही शायरी
jab bhi tanhai ke ehsas se ghabraata hun

ग़ज़ल

जब भी तन्हाई के एहसास से घबराता हूँ

अतीक़ुल्लाह

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जब भी तन्हाई के एहसास से घबराता हूँ
मैं हर इक चीज़ में तहलील सा हो जाता हूँ

मैं किसी जिस्म पे फेंका हुआ पत्थर तो न था
बार-हा अपना लहू देख के शरमाता हूँ

रात जो कुछ मुझे देती है सहर से पहले
वक़्त के गहरे समुंदर में उतार आता हूँ

दिन के हंगामे जिला देते हैं मुझ को वर्ना
सुब्ह से पहले कई मर्तबा मर जाता हूँ

एक नश्शे की तरह टूट गया हूँ ख़ुद से
अपने नज़दीक भी मुश्किल से नज़र आता हूँ