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अंबरीन हसीब अंबर शायरी | शाही शायरी

अंबरीन हसीब अंबर शेर

26 शेर

जो तुम हो तो ये कैसे मान लूँ मैं
कि जो कुछ है यहाँ बस इक गुमाँ है

अंबरीन हसीब अंबर




अब के हम ने भी दिया तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ का जवाब
होंट ख़ामोश रहे आँख ने बारिश नहीं की

अंबरीन हसीब अंबर




इक हसीं ख़्वाब कि आँखों से निकलता ही नहीं
एक वहशत है कि ता'बीर हुई जाती है

अंबरीन हसीब अंबर




हम तो सुनते थे कि मिल जाते हैं बिछड़े हुए लोग
तू जो बिछड़ा है तो क्या वक़्त ने गर्दिश नहीं की

अंबरीन हसीब अंबर




फ़ैसला बिछड़ने का कर लिया है जब तुम ने
फिर मिरी तमन्ना क्या फिर मिरी इजाज़त क्यूँ

अंबरीन हसीब अंबर




दुनिया तो हम से हाथ मिलाने को आई थी
हम ने ही ए'तिबार दोबारा नहीं किया

अंबरीन हसीब अंबर




दिल जिन को ढूँढता है न-जाने कहाँ गए
ख़्वाब-ओ-ख़याल से वो ज़माने कहाँ गए

अंबरीन हसीब अंबर




भूल जोते हैं मुसाफ़िर रस्ता
लोग कहते हैं कहानी फिर भी

अंबरीन हसीब अंबर




अयाँ दोनों से तक्मील-ए-जहाँ है
ज़मीं गुम हो तो फिर क्या आसमाँ है

अंबरीन हसीब अंबर