अयाँ दोनों से तक्मील-ए-जहाँ है
ज़मीं गुम हो तो फिर क्या आसमाँ है
तिलस्माती कोई क़िस्सा है दुनिया
यहाँ हर दिन नई इक दास्ताँ है
जो तुम हो तो ये कैसे मान लूँ मैं
कि जो कुछ है यहाँ बस इक गुमाँ है
सरों पर आसमाँ होते हुए भी
जिसे देखो वही बे-साएबाँ है
किसी धरती की शायद रेत होगी
हमारे वास्ते जो कहकशाँ है
अगर था चंद-रोज़ा मौसम-ए-गुल
तो फिर दो चार ही दिन की ख़िज़ाँ है
जिसे उम्र-ए-रवाँ कहते हैं 'अम्बर'
चलो देखें कहाँ तक राएगाँ है
ग़ज़ल
अयाँ दोनों से तक्मील-ए-जहाँ है
अंबरीन हसीब अंबर