वो मसीहा न बना हम ने भी ख़्वाहिश नहीं की
अपनी शर्तों पे जिए उस से गुज़ारिश नहीं की
उस ने इक रोज़ किया हम से अचानक वो सवाल
धड़कनें थम सी गईं वक़्त ने जुम्बिश नहीं की
किस लिए बुझने लगे अव्वल-ए-शब सारे चराग़
आँधियों ने भी अगरचे कोई साज़िश नहीं की
अब के हम ने भी दिया तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ का जवाब
होंट ख़ामोश रहे आँख ने बारिश नहीं की
हम तो सुनते थे कि मिल जाते हैं बिछड़े हुए लोग
तू जो बिछड़ा है तो क्या वक़्त ने गर्दिश नहीं की
उस ने ज़ाहिर न किया अपना पशेमाँ होना
हम भी अंजान रहे हम ने भी पुर्सिश नहीं की
ग़ज़ल
वो मसीहा न बना हम ने भी ख़्वाहिश नहीं की
अंबरीन हसीब अंबर