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जिस्म-ओ-जाँ में दर आई इस क़दर अज़िय्यत क्यूँ | शाही शायरी
jism-o-jaan mein dar aai is qadar aziyyat kyun

ग़ज़ल

जिस्म-ओ-जाँ में दर आई इस क़दर अज़िय्यत क्यूँ

अंबरीन हसीब अंबर

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जिस्म-ओ-जाँ में दर आई इस क़दर अज़िय्यत क्यूँ
ज़िंदगी भला तुझ से हो रही है वहशत क्यूँ

सिलसिला मोहब्बत का सिर्फ़ ख़्वाब ही रहता
अपने दरमियाँ आख़िर आ गई हक़ीक़त क्यूँ

फ़ैसला बिछड़ने का कर लिया है जब तुम ने
फिर मिरी तमन्ना क्या फिर मिरी इजाज़त क्यूँ

ये अजीब उलझन है किस से पूछने जाएँ
आइने में रहती है सिर्फ़ एक सूरत क्यूँ

कर्र-ओ-फ़र्र से निकले थे जो समेटने दुनिया
भर के अपने दामन में आ गए नदामत क्यूँ

आप से मुख़ातिब हूँ आप ही के लहजे में
फिर ये बरहमी कैसी और ये शिकायत क्यूँ