जंगल के बीच वहशत घर में जफ़ा ओ कुल्फ़त
ऐ दिल बता कि तेरे मारे हम अब किधर जाँ
आबरू शाह मुबारक
ख़ुदावंदा करम कर फ़ज़्ल कर अहवाल पर मेरे
नज़र कर आप पर मत कर नज़र अफ़आल पर मेरे
आबरू शाह मुबारक
ख़ुद अपनी आदमी को बड़ी क़ैद-ए-सख़्त है
फोड़ आईना व तोड़ सिकंदर की सद के तईं
आबरू शाह मुबारक
कम मत गिनो ये बख़्त-सियाहों का रंग-ए-ज़र्द
सोना वही जो होवे कसौटी कसा हुआ
आबरू शाह मुबारक
कभी बे-दाम ठहरावें कभी ज़ंजीर करते हैं
ये ना-शाएर तिरी ज़ुल्फ़ाँ कूँ क्या क्या नाम धरते हैं
आबरू शाह मुबारक
जो कि बिस्मिल्लाह कर खाए तआम
तो ज़रर नईं गो कि होवे बिस मिला
आबरू शाह मुबारक
जलता है अब तलक तिरी ज़ुल्फ़ों के रश्क से
हर-चंद हो गया है चमन का चराग़ गुल
आबरू शाह मुबारक
जब सीं तिरे मुलाएम गालों में दिल धँसा है
नर्मी सूँ दिल हुआ है तब सूँ रुई का गाला
आबरू शाह मुबारक
जब कि ऐसा हो गंदुमी माशूक़
नित गुनहगार क्यूँ न हो आदम
आबरू शाह मुबारक