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आबरू शाह मुबारक शायरी | शाही शायरी

आबरू शाह मुबारक शेर

71 शेर

मिल गईं आपस में दो नज़रें इक आलम हो गया
जो कि होना था सो कुछ अँखियों में बाहम हो गया

आबरू शाह मुबारक




मेहराब-ए-अबरुवाँ कूँ वसमा हुआ है ज़ेवर
क्यूँ कर कहें न उन कूँ अब ज़ीनतुल-मसाजिद

आबरू शाह मुबारक




मैं निबल तन्हा न इस दुनिया की सोहबत सीं हुआ
रुस्तमों कूँ कर दिया है ना-तवाँ इंज़ाल नीं

आबरू शाह मुबारक




मालूम अब हुआ है आ हिन्द बीच हम कूँ
लगते हैं दिल-बराँ के लब रंग-ए-पाँ से क्या ख़ूब

आबरू शाह मुबारक




क्यूँ तिरी थोड़ी सी गर्मी सीं पिघल जावे है जाँ
क्या तू नें समझा है आशिक़ इस क़दर है मोम का

आबरू शाह मुबारक




क्यूँ न आ कर उस के सुनने को करें सब यार भीड़
'आबरू' ये रेख़्ता तू नीं कहा है धूम का

आबरू शाह मुबारक




क्यूँ मलामत इस क़दर करते हो बे-हासिल है ये
लग चुका अब छूटना मुश्किल है उस का दिल है ये

आबरू शाह मुबारक




क्यूँ कर बड़ा न जाने मुंकिर नपे को अपने
इंकार उस का नाना और शैख़ है नवासा

आबरू शाह मुबारक




क्या सबब तेरे बदन के गर्म होने का सजन
आशिक़ों में कौन जलता था गले किस के लगा

आबरू शाह मुबारक