रोने वाले हुए चुप हिज्र की दुनिया बदली
शम्अ बे-नूर हुई सुब्ह का तारा निकला
फ़िराक़ गोरखपुरी
रौशन-दान से धूप का टुकड़ा आ कर मेरे पास गिरा
और फिर सूरज ने कोशिश की मुझ से आँख मिलाने की
हुमैरा रहमान
रात आ कर गुज़र भी जाती है
इक हमारी सहर नहीं होती
इब्न-ए-इंशा
सुब्ह सवेरे रन पड़ना है और घमसान का रन
रातों रात चला जाए जिस को जाना है
इफ़्तिख़ार आरिफ़
अब आ गई है सहर अपना घर सँभालने को
चलूँ कि जागा हुआ रात भर का मैं भी हूँ
इरफ़ान सिद्दीक़ी
हम ऐसे अहल-ए-नज़र को सुबूत-ए-हक़ के लिए
अगर रसूल न होते तो सुब्ह काफ़ी थी
जोश मलीहाबादी
नई सुब्ह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है
ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे
शकील बदायुनी