शाम-ए-ग़म की सहर नहीं होती
या हमीं को ख़बर नहीं होती
हम ने सब दुख जहाँ के देखे हैं
बेकली इस क़दर नहीं होती
नाला यूँ ना-रसा नहीं रहता
आह यूँ बे-असर नहीं होती
चाँद है कहकशाँ है तारे हैं
कोई शय नामा-बर नहीं होती
एक जाँ-सोज़ ओ ना-मुराद ख़लिश
इस तरफ़ है उधर नहीं होती
दोस्तो इश्क़ है ख़ता लेकिन
क्या ख़ता दरगुज़र नहीं होती
रात आ कर गुज़र भी जाती है
इक हमारी सहर नहीं होती
बे-क़रारी सही नहीं जाती
ज़िंदगी मुख़्तसर नहीं होती
एक दिन देखने को आ जाते
ये हवस उम्र भर नहीं होती
हुस्न सब को ख़ुदा नहीं देता
हर किसी की नज़र नहीं होती
दिल पियाला नहीं गदाई का
आशिक़ी दर-ब-दर नहीं होती
ग़ज़ल
शाम-ए-ग़म की सहर नहीं होती
इब्न-ए-इंशा