सुब्ह होते ही निकल आते हैं बाज़ार में लोग
गठरियाँ सर पे उठाए हुए ईमानों की
अहमद नदीम क़ासमी
ये धूप तो हर रुख़ से परेशाँ करेगी
क्यूँ ढूँड रहे हो किसी दीवार का साया
अतहर नफ़ीस
जम्अ करती है मुझे रात बहुत मुश्किल से
सुब्ह को घर से निकलते ही बिखरने के लिए
जावेद शाहीन
मुझ से ज़ियादा कौन तमाशा देख सकेगा
गाँधी-जी के तीनों बंदर मेरे अंदर
नाज़िर वहीद
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हालात से ख़ौफ़ खा रहा हूँ
शीशे के महल बना रहा हूँ
क़तील शिफ़ाई
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मिरे हालात को बस यूँ समझ लो
परिंदे पर शजर रक्खा हुआ है
शुजा ख़ावर
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