उधर तो दार पर रक्खा हुआ है
इधर पैरों में सर रक्खा हुआ है
कम अज़ कम इस सराब-ए-आरज़ू ने
मिरी आँखों को तर रक्खा हुआ है
समझते क्या हो हम को शहर वालो
बयाबाँ में भी घर रक्खा हुआ है
हम अच्छा माल तो बिल्कुल नहीं हैं
हमें क्यूँ बाँध कर रक्खा हुआ है
मिरे हालात को बस यूँ समझ लो
परिंदे पर शजर रक्खा हुआ है
जिहालत से गुज़ारा कर रहा हूँ
किताबों में हुनर रक्खा हुआ है
ग़ज़ल
उधर तो दार पर रक्खा हुआ है
शुजा ख़ावर