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ये जो तन्हाई मिली आँख में धरने के लिए | शाही शायरी
ye jo tanhai mili aankh mein dharne ke liye

ग़ज़ल

ये जो तन्हाई मिली आँख में धरने के लिए

जावेद शाहीन

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ये जो तन्हाई मिली आँख में धरने के लिए
इस में इक दश्त भी है मेरे गुज़रने के लिए

जम्अ करती है मुझे रात बहुत मुश्किल से
सुब्ह को घर से निकलते ही बिखरने के लिए

पाँव से लिपटी मिली सारी की सारी ये ज़मीं
ये फ़लक पूरा मिला आँख में धरने के लिए

और फिर करना पड़ा गोश्त को नाख़ुन से जुदा
ये ज़रूरी था किसी ज़ख़्म को भरने के लिए

थी वो इक तेज़ हवा ऊँचा मुझे ले आई
अब ज़मीं तंग सी लगती है उतरने के लिए

बात कैसी भी हो पल भर की नदामत के सिवा
ख़र्च आता है भला कितना मुकरने के लिए

और फिर ऐसा हुआ सामने मेरे 'शाहीन'
झूट के पाँव निकल आए ठहरने के लिए