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वलीउल्लाह मुहिब शायरी | शाही शायरी

वलीउल्लाह मुहिब शेर

15 शेर

ऐ बंदा-परवर इतना लाज़िम है क्या तकल्लुफ़
उठिए ग़रीब-ख़ाने चलिए बिला-तकल्लुफ़

वलीउल्लाह मुहिब




ऐ दिल तुझे करनी है अगर इश्क़ से बैअ'त
ज़िन्हार कभू छोड़ियो मत सिलसिला-ए-दर्द

वलीउल्लाह मुहिब




अरे ओ ख़ाना-आबाद इतनी ख़ूँ-रेज़ी ये क़त्ताली
कि इक आशिक़ नहीं कूचा तिरा वीरान सूना है

वलीउल्लाह मुहिब




अश्क-बारी से ग़म-ओ-दर्द की खेती-बाड़ी
लहलही सी नज़र आती है हरी रहती है

वलीउल्लाह मुहिब




ब-मअ'नी कुफ़्र से इस्लाम कब ख़ाली है ऐ ज़ाहिद
निकल सुबहे से रिश्ता सूरत-ए-ज़ुन्नार हो पैदा

वलीउल्लाह मुहिब




ब-तस्ख़ीर-बुताँ तस्बीह क्यूँ ज़ाहिद फिराते हैं
ये लोहे के चने वल्लाह आशिक़ ही चबाते हैं

वलीउल्लाह मुहिब




बे-इश्क़ जितनी ख़ल्क़ है इंसाँ की शक्ल में
नज़रों में अहल-ए-दीद के आदम ये सब नहीं

वलीउल्लाह मुहिब




चराग़-ए-का'बा-ओ-दैर एक सा है चश्म-ए-हक़-बीं में
'मुहिब' झगड़ा है कोरी के सबब शैख़ ओ बरहमन का

वलीउल्लाह मुहिब




दैर में का'बे में मयख़ाने में और मस्जिद में
जल्वा-गर सब में मिरा यार है अल्लाह अल्लाह

वलीउल्लाह मुहिब