दरिया-ए-मोहब्बत से 'मुहिब' ले ही के छोड़ी
मुझ अश्क ने आख़िर दुर-ए-नायाब की मीरास
वलीउल्लाह मुहिब
दर्स-ए-इल्म-ए-इश्क़ से वाक़िफ़ नहीं मुतलक़ फ़क़ीह
नहव ही में महव है या सर्फ़ ही में सर्फ़ है
वलीउल्लाह मुहिब
दीं से पैदा कुफ़्र है और नूर शक्ल-ए-नार है
रिश्ता जब सुबहे से निकला सूरत-ए-ज़ुन्नार है
वलीउल्लाह मुहिब
दीवानगी के सिलसिला का होए जो मुरीद
उस गेसू-ए-दराज़ सिवा पीर ही नहीं
वलीउल्लाह मुहिब
दिलों का फ़र्श है वाँ पाँव रखने की कहाँ जागह
गुज़रता है तिरे कूचे से पहले ही क़दम सर से
वलीउल्लाह मुहिब
दोस्ती छूटे छुड़ाए से किसू के किस तरह
बंद होता ही नहीं रस्ता दिलों की राह का
वलीउल्लाह मुहिब