ऐसा कुछ गर्दिश-ए-दौराँ ने रखा है मसरूफ़
माजरे हो न सके हम से क़लम-बंद अपने
सिद्दीक़ शाहिद
बजा है ख़्वाब-नवर्दी प ख़्वाब ऐसे हों
खुले जो आँख तो अपना ही घर खंडर न लगे
सिद्दीक़ शाहिद
खुला न उस पे कभी मेरी आँख का मंज़र
जमी है आँख में काई कोई दिखाए उसे
सिद्दीक़ शाहिद
ख़्वाब टूटे पड़े हैं सब मेरे
मैं हूँ और हैरतों का सामाँ है
सिद्दीक़ शाहिद
कुछ ऐसे दौर भी ताहम गिरफ़्त में आए
कि ये ज़मीं रही बाक़ी न आसमाँ ही रहा
सिद्दीक़ शाहिद
मुझ से कहती हैं वो उदास आँखें
ज़िंदगी भर की सब थकन याँ है
सिद्दीक़ शाहिद
निकल आए जो हम घर से तो सौ रस्ते निकल आए
अबस था सोचना घर में कोई ग़ैबी इशारा हो
सिद्दीक़ शाहिद
उस के जाने पे ये एहसास हुआ है 'शाहिद'
वो जज़ीरा था मिरा दुख से भरे पानी में
सिद्दीक़ शाहिद