आग को फूल कहे जाएँ ख़िरद-मंद अपने
और आँखों पे रखें दीद के दर बंद अपने
लाख चाहा कि ग़म-ओ-फ़िक्र-ए-जहाँ से छूटें
जामा-ए-दिल पे ये सजते रहे पैवंद अपने
शहर में धूम मचाती रही क्या ताज़ा हवा
हम ने दर वा न किया हम हैं गिला-मंद अपने
सतह-ए-क़िर्तास पे उतरे न तिरी गुल-बदनी
कितने आजिज़ हुए जाते हैं हुनर-मंद अपने
मरहला तय न हुआ अहल-ए-तज़बज़ुब से कोई
जुर्म-ए-तश्कीक से बैठे रहे पाबंद अपने
ऐसा कुछ गर्दिश-ए-दौराँ ने रखा है मसरूफ़
माजरे हो न सके हम से क़लम-बंद अपने
हम तो मर जाते ग़म-ए-हिज्र के हाथों 'शाहिद'
दश्त आफ़ाक़ में होते न अगर चंद अपने
ग़ज़ल
आग को फूल कहे जाएँ ख़िर्द-मंद अपने
सिद्दीक़ शाहिद