आते हुए इस तन में न जाते हुए तन से
है जान-ए-मकीं को न लगावट न रुकावट
साहिर देहल्वी
अहद-ए-मीसाक़ का लाज़िम है अदब ऐ वाइ'ज़
है ये पैमान-ए-वफ़ा रिश्ता-ए-ज़ुन्नार न तोड़
साहिर देहल्वी
ऐ परी-रू तिरे दीवाने का ईमाँ क्या है
इक निगाह-ए-ग़लत-अंदाज़ पे क़ुर्बां होना
साहिर देहल्वी
अयाँ 'अलीम' से है जिस्म-ओ-जान का इल्हाक़
मकीं मकाँ में न होता तो ला-मकाँ होता
साहिर देहल्वी
अज़ल से हम-नफ़सी है जो जान-ए-जाँ से हमें
पयाम दम-ब-दम आता है ला-मकाँ से हमें
साहिर देहल्वी
बे-निशाँ साहिर निशाँ में आ के शायद बन गया
ला-मकाँ हो कर मकाँ में ख़ुद मकीं होता रहा
साहिर देहल्वी
ग़म-ए-मौजूद ग़लत और ग़म-ए-फ़र्दा बातिल
राहत इक ख़्वाब है जिस की कोई ताबीर नहीं
साहिर देहल्वी
है सनम-ख़ाना मिरा पैमान-ए-इश्क़
ज़ौक़-ए-मय-ख़ाना मुझे सामान-ए-इश्क़
साहिर देहल्वी
हम गदा-ए-दर-ए-मय-ख़ाना हैं ऐ पीर-ए-मुग़ाँ
काम अपना तिरे सदक़े में चला लेते हैं
साहिर देहल्वी