बे-निशाँ साहिर निशाँ में आ के शायद बन गया
ला-मकाँ हो कर मकाँ में ख़ुद मकीं होता रहा
साहिर देहल्वी
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अज़ल से हम-नफ़सी है जो जान-ए-जाँ से हमें
पयाम दम-ब-दम आता है ला-मकाँ से हमें
साहिर देहल्वी
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अयाँ 'अलीम' से है जिस्म-ओ-जान का इल्हाक़
मकीं मकाँ में न होता तो ला-मकाँ होता
साहिर देहल्वी
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ऐ परी-रू तिरे दीवाने का ईमाँ क्या है
इक निगाह-ए-ग़लत-अंदाज़ पे क़ुर्बां होना
साहिर देहल्वी
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अहद-ए-मीसाक़ का लाज़िम है अदब ऐ वाइ'ज़
है ये पैमान-ए-वफ़ा रिश्ता-ए-ज़ुन्नार न तोड़
साहिर देहल्वी
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