आरिज़ पे रही ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम हमेशा
पामाल रहा कुफ़्र का इस्लाम हमेशा
किशन कुमार वक़ार
आतिशीं हुस्न क्यूँ दिखाते हो
दिल है आशिक़ का कोह-ए-तूर नहीं
किशन कुमार वक़ार
अश्क-ए-हसरत है आज तूफ़ाँ-ख़ेज़
कश्ती-ए-चश्म की तबाही है
किशन कुमार वक़ार
बहुत दिनों से हूँ आमद का अपनी चश्म-ब-राह
तुम्हारा ले गया ऐ यार इंतिज़ार कहाँ
किशन कुमार वक़ार
बैठे जो उस गली में न मर कर भी उट्ठे हम
इक ढेर गिर के हो गए दीवार की तरह
किशन कुमार वक़ार
ब-क़ैद-ए-वक़्त पढ़ी मैं ने पंजगाना नमाज़
शराब पीने में कुछ एहतियात मुझ को नहीं
किशन कुमार वक़ार
बोसा दहन का उस के न पाएँगे अपने लब
दाग़ी है मैं ने नोक ज़बान-ए-सवाल की
किशन कुमार वक़ार
छुपता नहीं है दिल में कभी राज़ इश्क़ का
ये आग वो है जिस को नहीं ताब संग में
किशन कुमार वक़ार
धूप में रख क़फ़स न ऐ सय्याद
साया-पर्वरदा-ए-चमन हूँ मैं
किशन कुमार वक़ार