एक एक कर के लोग निकल आए धूप में
जलने लगे थे जैसे सभी घर की छाँव में
ख़ातिर ग़ज़नवी
फ़ज़ाएँ चुप हैं कुछ ऐसी कि दर्द बोलता है
बदन के शोर में किस को पुकारें क्या माँगें
ख़ातिर ग़ज़नवी
गो ज़रा सी बात पर बरसों के याराने गए
लेकिन इतना तो हुआ कुछ लोग पहचाने गए
ख़ातिर ग़ज़नवी
गुलों की महफ़िल-ए-रंगीं में ख़ार बन न सके
बहार आई तो हम गुलसिताँ से लौट आए
ख़ातिर ग़ज़नवी
इक तजस्सुस दिल में है ये क्या हुआ कैसे हुआ
जो कभी अपना न था वो ग़ैर का कैसे हुआ
ख़ातिर ग़ज़नवी
इंसाँ हूँ घिर गया हूँ ज़मीं के ख़ुदाओं में
अब बस्तियाँ बसाऊँगा जा कर ख़लाओं में
ख़ातिर ग़ज़नवी
जो फूल आया सब्ज़ क़दम हो के रह गया
कब फ़स्ल-ए-गुल है फ़स्ल-ए-तरब अपने शहर में
ख़ातिर ग़ज़नवी
कैसी चली है अब के हवा तेरे शहर में
बंदे भी हो गए हैं ख़ुदा तेरे शहर में
ख़ातिर ग़ज़नवी
'ख़ातिर' अब अहल-ए-दिल भी बने हैं ज़माना-साज़
किस से करें वफ़ा की तलब अपने शहर में
ख़ातिर ग़ज़नवी