इंसाँ हूँ घिर गया हूँ ज़मीं के ख़ुदाओं में
अब बस्तियाँ बसाऊँगा जा कर ख़लाओं में
यादों के नक़्श कंदा हैं नामों के रूप में
हम ने भी दिन गुज़ारे दरख़्तों की छाँव में
दौड़ा रगों में ख़ूँ की तरह शोर शहर का
ख़ामोशियों ने छीन लिया चैन गाँव में
यूँ तो रवाँ हैं मेरे तआक़ुब में मंज़िलें
लेकिन मैं ठोकरों को लपेटे हूँ पाँव में
वो आ के चल दिए हैं ख़यालों मैं गुम रहा
क़दमों की चाप दब गई दिल की सदाओं में
सर रख के सो गया हूँ ग़मों की सलीब पर
शायद कि ख़्वाब ले उड़ें हँसती फ़ज़ाओं में
एक एक कर के लोग निकल आए धूप में
जलने लगे थे जैसे सभी घर की छाँव में
सहरा की प्यास ले के चला जिन के साथ साथ
पानी की एक बूँद न थी उन घटाओं में
जलते गुलाब में न ज़रा सी भी आँच थी
हम तो जले हैं हिज्र की ठंडी ख़िज़ाओं में
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ग़ज़ल
इंसाँ हूँ घिर गया हूँ ज़मीं के ख़ुदाओं में
ख़ातिर ग़ज़नवी