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तिरी तलब थी तिरे आस्ताँ से लौट आए | शाही शायरी
teri talab thi tere aastan se lauT aae

ग़ज़ल

तिरी तलब थी तिरे आस्ताँ से लौट आए

ख़ातिर ग़ज़नवी

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तिरी तलब थी तिरे आस्ताँ से लौट आए
ख़िज़ाँ-नसीब रहे गुलसिताँ से लौट आए

ब-सद-यक़ीं बढ़े हद्द-ए-गुमाँ से लौट आए
दिल ओ नज़र के तक़ाज़े कहाँ से लौट आए

सर-ए-नियाज़ को पाया न जब तिरे क़ाबिल
ख़राब-ए-इश्क़ तिरे आस्ताँ से लौट आए

क़फ़स के उन्स ने इस दर्जा कर दिया मजबूर
कि उस की याद में हम आशियाँ से लौट आए

बुला रही हैं जो तेरी सितारा-बार आँखें
मिरी निगाह न क्यूँ कहकशाँ से लौट आए

न दिल में अब वो ख़लिश है न ज़िंदगी में तड़प
ये कह दो फिर मिरे दर्द-ए-निहाँ से लौट आए

गुलों की महफ़िल-ए-रंगीं में ख़ार बन न सके
बहार आई तो हम गुलसिताँ से लौट आए

फ़रेब हम को न क्या क्या इस आरज़ू ने दिए
वही थी मंज़िल-ए-दिल हम जहाँ से लौट आए