बहुत तन्हा है वो ऊँची हवेली
मिरे गाँव के इन कच्चे घरों में
ख़ालिद सिद्दीक़ी
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बे-कार है बे-म'अनी है अख़बार की सुर्ख़ी
लिक्खा है जो दीवार पे वो ग़ौर-तलब है
ख़ालिद सिद्दीक़ी
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इक और खेत पक्की सड़क ने निगल लिया
इक और गाँव शहर की वुसअत में खो गया
ख़ालिद सिद्दीक़ी
जो आँख की पुतली में रहा नूर की सूरत
वो शख़्स मिरे घर के अँधेरे का सबब है
ख़ालिद सिद्दीक़ी
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ये कैसी हिजरतें हैं मौसमों में
परिंदे भी नहीं हैं घोंसलों में
ख़ालिद सिद्दीक़ी
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यूँ अगर घटते रहे इंसाँ तो 'ख़ालिद' देखना
इस ज़मीं पर बस ख़ुदा की बस्तियाँ रह जाएँगी
ख़ालिद सिद्दीक़ी
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