साहिलों से दूर जिस दिन कश्तियाँ रह जाएँगी
चार जानिब ख़ाली ख़ाली बस्तियाँ रह जाएँगी
फिर समुंदर में उतर जाएगा पानी बूँद बूँद
जाल में दम तोड़ती कुछ मछलियाँ रह जाएँगी
ये तवाना जिस्म थक कर एक दिन गिर जाएगा
खाल के अंदर फड़कती पस्लियाँ रह जाएँगी
बाग़बानों का चमन यूँही रहा तो एक दिन
बाग़ की पहचान बस दो तितलियाँ रह जाएँगी
मैं न कहता था कि दिल की बात कहने के लिए
खोखले अल्फ़ाज़ की बैसाखियाँ रह जाएँगी
यूँ अगर घटते रहे इंसाँ तो 'ख़ालिद' देखना
इस ज़मीं पर बस ख़ुदा की बस्तियाँ रह जाएँगी
ग़ज़ल
साहिलों से दूर जिस दिन कश्तियाँ रह जाएँगी
ख़ालिद सिद्दीक़ी