आओ हम हँसते उठें बज़्म-ए-दिल-आज़ाराँ से
कौन एहसास को बीमार बना कर उट्ठे
क़ौसर जायसी
अपने ग़म की फ़िक्र न की इस दुनिया की ग़म-ख़्वारी में
बरसों हम ने दस्त-ए-जुनूँ से काम लिया दानाई का
क़ौसर जायसी
छलक उठा जो कभी ख़ून-ए-आरज़ू मेरा
मिज़ा मिज़ा तिरी रानाइयों की बात गई
क़ौसर जायसी
ग़म नैरंग दिखाता है हस्ती की जल्वा-नुमाई का
कितने ज़मानों का हासिल है इक लम्हा तन्हाई का
क़ौसर जायसी
कभी कभी सफ़र-ए-ज़िंदगी से रूठ के हम
तिरे ख़याल के साए में बैठ जाते हैं
क़ौसर जायसी
ख़्वाब देखा था कहाँ चमकी है ताबीर कहाँ
हश्र का दिन मिरी फ़ितरत का उजाला निकला
क़ौसर जायसी
तख़्लीक़ के पर्दे में सितम टूट रहे हैं
आज़र ही के हाथों से सनम टूट रहे हैं
क़ौसर जायसी
थी नज़र के सामने कुछ तो तलाफ़ी की उमीद
खेत सूखा था मगर दरिया में तुग़्यानी तो थी
क़ौसर जायसी
वो अर्ज़-ए-ग़म पे मिरी उन का एहतिमाम-ए-सुकूत
तमाम शोरिश-ए-तफ़्सील-ए-वाक़िआत गई
क़ौसर जायसी