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तख़्लीक़ के पर्दे में सितम टूट रहे हैं | शाही शायरी
taKHliq ke parde mein sitam TuT rahe hain

ग़ज़ल

तख़्लीक़ के पर्दे में सितम टूट रहे हैं

क़ौसर जायसी

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तख़्लीक़ के पर्दे में सितम टूट रहे हैं
आज़र ही के हाथों से सनम टूट रहे हैं

ढाई कहीं जाती है जो तामीर-ए-मोहब्बत
महसूस ये होता है कि हम टूट रहे हैं

सुलझे न मसाइल ग़म ओ अफ़्लास के लेकिन
तफ़्सीर-ए-मसाइल में क़लम टूट रहे हैं

बे-फ़ैज़ गुज़र जाते हैं गुलशन से हमारे
मौसम के भी अब क़ौल-ओ-क़सम टूट रहे हैं

रक़क़ास-ए-शबिस्तान-ए-हवस तुझ को ख़बर है
आईने तिरे ज़ेर-ए-क़दम टूट रहे हैं

रात और जवाँ हो तो उजाला हो फ़ज़ा में
पलकों से सितारे अभी कम टूट रहे हैं

बेदार हुए जाते हैं ईजाद के शोले
हर लहज़ा तिलिस्मात-ए-अदम टूट रहे हैं

अल्लाह-रे कशिश उस निगह-ए-ज़ोहद-शिकन की
मरकज़ से ग़ज़ालान-ए--हरम टूट रहे हैं

अल्लाह के होते मुझे क्यूँ फ़िक्र हो 'कौसर'
बंदों के जो आईन-ए-करम टूट रहे हैं