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हसीब सोज़ शायरी | शाही शायरी

हसीब सोज़ शेर

8 शेर

दर-ओ-दीवार भी घर के बहुत मायूस थे हम से
सो हम भी रात इस जागीर से बाहर निकल आए

हसीब सोज़




मेरी संजीदा तबीअत पे भी शक है सब को
बाज़ लोगों ने तो बीमार समझ रक्खा है

हसीब सोज़




तेरे मेहमाँ के स्वागत का कोई फूल थे हम
जो भी निकला हमें पैरों से कुचल कर निकला

हसीब सोज़




तू एक साल में इक साँस भी न जी पाया
मैं एक सज्दे में सदियाँ कई गुज़ार गया

हसीब सोज़




वो एक रात की गर्दिश में इतना हार गया
लिबास पहने रहा और बदन उतार गया

हसीब सोज़




यहाँ मज़बूत से मज़बूत लोहा टूट जाता है
कई झूटे इकट्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है

हसीब सोज़




ये बद-नसीबी नहीं है तो और फिर क्या है
सफ़र अकेले किया हम-सफ़र के होते हुए

हसीब सोज़




ये इंतिक़ाम है या एहतिजाज है क्या है
ये लोग धूप में क्यूँ हैं शजर के होते हुए

हसीब सोज़