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दर्द आसानी से कब पहलू बदल कर निकला | शाही शायरी
dard aasani se kab pahlu badal kar nikla

ग़ज़ल

दर्द आसानी से कब पहलू बदल कर निकला

हसीब सोज़

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दर्द आसानी से कब पहलू बदल कर निकला
आँख का तिनका बहुत आँख मसल कर निकला

तेरे मेहमाँ के स्वागत का कोई फूल थे हम
जो भी निकला हमें पैरों से कुचल कर निकला

शहर की आँखें बदलना तो मिरे बस में न था
ये किया मैं ने कि मैं भेस बदल कर निकला

मेरे रस्ते के मसाइल थे नोकीले इतने
मेरे दुश्मन भी मिरे पैरों से चल कर निकला

डगमगाने न दिए पाँव रवा-दारी ने
मैं शराबी था मगर रोज़ सँभल कर निकला