ऐ ख़ुदा इंसान की तक़्सीम-दर-तक़्सीम देख
पारसाओं देवताओं क़ातिलों के दरमियाँ
हसन आबिदी
अश्कों में पिरो के उस की यादें
पानी पे किताब लिख रहा हूँ
हसन आबिदी
दिल की दहलीज़ पे जब शाम का साया उतरा
उफ़ुक़-ए-दर्द से सीने में उजाला उतरा
हसन आबिदी
दुनिया कहाँ थी पास-ए-विरासत के ज़िम्न में
इक दीन था सो उस पे लुटाए हुए तो हैं
हसन आबिदी
कुछ न कुछ तो होता है इक तिरे न होने से
वर्ना ऐसी बातों पर कौन हाथ मलता है
हसन आबिदी
सब उम्मीदें मिरे आशोब-ए-तमन्ना तक थीं
बस्तियाँ हो गईं ग़र्क़ाब तो दरिया उतरा
हसन आबिदी
शहर-ए-ना-पुरसाँ में कुछ अपना पता मिलता नहीं
बाम-ओ-दर रौशन हैं लेकिन रास्ता मिलता नहीं
हसन आबिदी
तिश्ना-कामों को यहाँ कौन सुबू देता है
गुल को भी हाथ लगाओ तो लहू देता है
हसन आबिदी
याद-ए-याराँ दिल में आई हूक बन कर रह गई
जैसे इक ज़ख़्मी परिंदा जिस के पर टूटे हुए
हसन आबिदी