'अरमाँ' बस एक लज़्ज़त-ए-इज़हार के सिवा
मिलता है क्या ख़याल को लफ़्ज़ों में ढाल कर
अरमान नज्मी
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बचा क्या रह गया कालक भरे झुलसे मकानों में
उजाड़ी बस्तियों की बे-निशानी का तमाशा कर
अरमान नज्मी
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घुटन से बच के कहीं साँस ले नहीं सकते
जहाँ भी जाएँ ये काला धुआँ तो सर पर है
अरमान नज्मी
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हुआ है क़र्या-ए-जाँ में ये सानेहा कैसा
मिरे वजूद के अंदर है ज़लज़ला कैसा
अरमान नज्मी
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