EN اردو
घनी आबादियों की बे-अमानी का तमाशा कर | शाही शायरी
ghani aabaadiyon ki be-amani ka tamasha kar

ग़ज़ल

घनी आबादियों की बे-अमानी का तमाशा कर

अरमान नज्मी

;

घनी आबादियों की बे-अमानी का तमाशा कर
निकल कर घर से मर्ग-ए-ना-गहानी का तमाशा कर

जो ज़िंदा आग में डाले गए लाशें न गिन उन की
जो बच निकले हैं उन की सख़्त-जानी का तमाशा कर

जो तख़्त-ओ-ताज के मालिक हैं क्या वो मो'तबर भी हैं
शर-अंगेज़ी में डूबी हुक्मरानी का तमाशा कर

बचा क्या रह गया कालक भरे झुलसे मकानों में
उजाड़ी बस्तियों की बे-निशानी का तमाशा कर

नई तारीख़ के सफ़्हों पे लिक्खा जा रहा है क्या
हुरूफ़-ए-क़हर की आतिश-फ़िशानी का तमाशा कर

जो दिल में है उसे ना-गुफ़्ता रहने दे तो बेहतर है
बदलती सूरत-ए-हर्फ़-ओ-मआनी का तमाशा कर

न कोई ख़्वाब बाक़ी है न आँसू ख़ुश्क आँखों में
तही-दस्तों की गुम-सुम नौहा-ख़्वानी का तमाशा कर

हर इक शब शुक्र कर तेरी अभी गर्दन सलामत है
हर इक दिन सैल-ए-ख़ूँ की बे-करानी का तमाशा कर

क़यामत सर तक आ पहुँची है रख ले हाथ आँखों पर
मता-ए-ज़िंदगी की राएगानी का तमाशा कर