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पिछली रफ़ाक़तों का न इतना मलाल कर | शाही शायरी
pichhli rafaqaton ka na itna malal kar

ग़ज़ल

पिछली रफ़ाक़तों का न इतना मलाल कर

अरमान नज्मी

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पिछली रफ़ाक़तों का न इतना मलाल कर
अपनी शिकस्तगी का भी थोड़ा ख़याल कर

डस ले कहीं तुम्हीं को न मौक़ा निकाल कर
रक्खो न आस्तीं में कोई साँप पाल कर

शर्मिंदगी का ज़ख़्म न गहरा लगे कहीं
कुछ इस क़दर दराज़ न दस्त-ए-सवाल कर

मेरी तरह न तू भी घुटन का शिकार हो
ख़ुद अपनी ख़्वाहिशों को न यूँ पाएमाल कर

जो आप की निगाह में इतना बुलंद है
देखा है उस का ज़र्फ़ भी मैं ने खंगाल कर

लम्हों की तुंद मौज से बचना मुहाल है
रख्खोगे कैसे याद की ख़ुश्बू सँभाल कर

'अरमाँ' बस एक लज़्ज़त-ए-इज़हार के सिवा
मिलता है क्या ख़याल को लफ़्ज़ों में ढाल कर