जब फ़स्ल-ए-बहाराँ आती है शादाब गुलिस्ताँ होते हैं
तकमील-ए-जुनूँ भी होती है और चाक गरेबाँ होते हैं
अनवर सहारनपुरी
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जल्वा-ए-यार देख कर तूर पे ग़श हुए कलीम
अक़्ल-ओ-ख़िरद का काम क्या महफ़िल-ए-हुस्न-ओ-नाज़ में
अनवर सहारनपुरी
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मुक़द्दर से मिरे दोनों के दोनों बेवफ़ा निकले
न उम्र-ए-बेवफ़ा पलटी न फिर जा कर शबाब आया
अनवर सहारनपुरी
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नीची नज़रों से कर दिया घायल
अब ये समझे कि ये हया क्या है
अनवर सहारनपुरी
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शायद नियाज़-मंद को हासिल नियाज़ हो
हसरत से तक रहा हूँ तिरी रहगुज़र को मैं
अनवर सहारनपुरी
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वो ताज़ा दास्ताँ हूँ मरने के बा'द उन को
आएगा याद मेरा अफ़्साना ज़िंदगी का
अनवर सहारनपुरी
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